गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

रीवा का सामान्य परिचय

रीवा। मध्यप्रदेश का रीवा राजघराना अपनी विशिष्ट पहचान के लिए जाना जाता रहा है। यहां एक ऐसी परंपरा है जो शदियों से चली आ रही जिसमें राजाओं की जगह गद्दी पर भगवान राम को विराजा जाता है। रीवा में बाघेल वंश के राजाओं ने 35 पुस्त तक शासन किया। यहां के राजा भगवान राम के अनुज लक्ष्मण को अपना अग्रज मानते रहे हैं। उनके कुल देवता लक्ष्मण माने जाते हैं। इस कारण यहां के राजा लक्ष्मण के नाम पर ही शासन करते रहे हैं।

मान्यता है कि लक्ष्मण ने अपनेशासनकाल में भगवान श्रीराम को आदर्श माना और गद्दी पर स्वयं नहीं बैठे। इसी परंपरा को कायमरखते हुए रीवा राजघराने की जो गद्दी है उसमें अब तक कोई राजा नहीं बैठा है। यह गद्दी राजाधिराज(भगवान श्रीराम) की मानी जाती है। गद्दी के बगल में बैठकर शासक राज करते रहे हैं।बांधवगढ़ में भी थी परंपराराजघराने की गद्दी में राजाधिराज को बैठाने की परंपरा शुरुआत से रही है। पहलेराघराने की राजधानी बांधवगढ़ (उमरिया) ही थी। सन् 1618 में शताब्दी में महाराजा विक्रमादित्य रीवा आए तब भी यहां पर परंपरा वही रही। शासक की गद्दी में राजाधिराज को बैठाया जाता रहा और उनके सेवक की हैसियत से राजाओं ने शासन चलाया। यह परंपरा रीवा राजघराने को देश में अलग पहचानदेती रही।लक्ष्मण का बनवाया मंदिरराजघराने के कुलदेवता लक्ष्मण थे इस वजह से अवसर विशेष पर पूजा-पाठ के लिए बांधवगढ़ जाना पड़ता था। 

महाराजा रघुराज सिंह ने लक्ष्मणबाग संस्थान की स्थापना की और वहां पर लक्ष्मणमंदिर बनवाया। देश के कुछ चिन्हित ही ऐसे स्थान हैं जहांपर लक्ष्मण के मंदिर हैं उनकी पूजा होती है।गद्दी का निकलता है चल समारोहरीवा किले से अभी भी राजाधिराजकी गद्दी का पूजन किया जाता है और दशहरे के दिन चल समारोह निकलता है। गद्दी का दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आतेहैं। राजघराने के प्रमुख पुष्पराज सिंह, उनके पुत्र दिव्यराज सिंह एवं बाघेल खानदान के लोग पहले गद्दी का पूजन करते हैं और बाद में पूरे शहर में चल समारोह निकलता है। शदियों की परंपरा अभी भी यहां जीवित है।

राजाधिराज ने हर समय संकट से बचायापुजारी महासभा के अध्यक्ष अशोक पाण्डेय कहते हैं कि राजाधिराज को गद्दी में बैठाने का यह फायदा रहा कि रीवा राज विपरीत परिस्थतियों से हर बार उबरता रहा। कई बार संकट की स्थितियां पैदा हुई लेकिन उनका सहजता से निराकरण हो गया। यहां की पूजा पद्धतियां भी अन्य राज्यों से अलग पहचान देती रही हैं।शेरोँ का शहर रीवा: जो कभी गुलाम नही बनाआज हम बात कर रहे हैँ एक ऐसे शहरकी जिसने पूरे विश्व को सफेद शेरोँ का नायाब तोहफा दिया है।रीवा के घने जंगलोँ मेँ सबसे पहले सफेद शेर देखे गये थे। महाराजा गुलाब सिंह ने वैज्ञानिकोँ की सहायता से सफेद शेरोँ की किस्म विकसित कराया। आज विश्व के बडे बडे चिडियाघरोँ मेँ सफेद शेर रीवा रियासत की ही देन है। पहले सफेद शेर मोहन का अस्थि पंजर आज भी रीवा के म्यूजियम मेँ संग्रहीत है। 

रीवा के बारे मेँ एक बात यह भी है कि जब पूरे भारत मेँ अंग्रजोँ की हुकूमत थी तब भी रीवा रियासत स्वतंत्र थी।रीवा का इतिहास बहुत पुराना है। एक बार महाराजा विक्रमादित्य अपने शिकारी कुत्तोँ के साथ शिकार पर जंगल मेँ निकले थे। शिकार पर वो अपने राज्य से बहुत दूर निकल आये थे। तभी महाराजा विक्रमादित्य के शिकारी कुत्तोँ ने एक खरगोश को दौडा लिया। खरगोश आँगे- आँगे और कुत्ते पीँछे-पीँछे। महाराजा विक्रमादित्य इस दृश्य को बडे ध्यान से देख रहे थे। तब एक आश्चर्यजनक घटना घटी। खरगोश अचानक निर्भय खडा हो गया और शिकारी कुत्तोँ की तरफ क्रोध से देखने लगा। 

महाराजा विक्रमादित्य को इस घटना से बडा विस्मय हुआ। उन्होने सोचा कि जब एक साधारण सा खरगोश इस स्थान पर पहुँचकर इतना साहसी हो सकता है तो यह स्थान हमारे लिये कितना अच्छा साबित होगा। आज उसी स्थान पर उपरहटी मेँ रीवा का किला बना है। रीवा एक ऐसा ही राज्य था जहाँ हर एक इंसान शेर और आजादी उनकी शान थी।ऐसी भी मान्यतामाना जाता है की रीवा मेँ बडे प्रतापी राजा हुये। 

महाराजा रघुराज सिँह के बारे मेँ सुना है कि एक बार युद्ध के समय सोन नदी मेँ बाढ थी तो उन्होने सोन नदी से उस पार जाने के लिये रास्ता माँगा। सोन नदी ने उनकोरास्ता दे दिया था। इसी प्रकारएक बार अंग्रजोँ ने उन्हे आमंत्रित किया था। उनके अस्त्र शस्त्र बाहर रखा लिये गये थे। उन पर संधि के लिय दबाव डाला गया तो उन्होने अपनी पेन से एक फायर किया तो एक बडी सी चट्टान के दो टुकडे हो गये। अंग्रेज भी भयभीत हो गये थे कि जहाँ के पेन मेँ ऐसी शक्ति है वहाँ की तोपोँ मेँ भला कैसी शक्ति होगी। महाराजा रघुराज सिँह की मृत्यु के बारे मेँ मैने एक आश्चर्य जनक घटना सुनीहै। कहते हैँ मृत्यु के समय वो बहुत बीमार पड गये थे । एक साधू किला के बाहर भिक्षा माँगने आया। उसने अपने कमंडल मेँ घी माँगा। उसके कमंडल मेँ घी डाला गया परंतु वो कमंडल भरने का नाम नही ले रहा था। महाराजा रघुराज सिँह को जब इस बारे मेँ बताया गया तो उन्होने कमंडल के ही आकार का दूसरा कमंडल बनाने का आदेश दिया। उसके बाद महाराज ने अपने कमंडल को घी से भरा। महाराज ने अपने कमंडल से घी साधू के कमंडल मेँ डालना शुरु किया। कहते हैँ कि न तो साधू का कमंडल भर रहा था और न ही महाराज का कमंडल खाली हो रहा था। अंततः साधू का कमंडल भर गया। साधू ने कहा तुम धन्य हो पर अब तुम्हारे धरती से चलना का समय आ गया है। उसी रात महाराज का स्वर्गवास हो गया। ऐसे ही प्रतापी महाराजा गुलाब सिंह जू राव और महाराजा मार्तण्ड सिँह थे। 

इलाहाबाद मेँ जमुना किनारे के अंग्रजोँ के किले कीजेल की मोटी सलाख को महाराज मार्तण्ड सिँह ने अपने तंबाखू रखने वाले पात्र से काट दिया था।था।रीवा रियासत मेँ चेतक के समान ही एक घोडा था जो युद्ध के समय अपने मुख के जबडोँ मेँ तलवार को फँसाकर दुश्मनोँ की सेना कोगाजर मूली की तरह काट डालता था। इस घोडे के मृत्यु के बाद राजकीय विधि से इनका अंतिम संस्कार किया गया और और उसके सम्मान मेँ एक पार्क बनाया गया।अकबर के नवरत्नो मेँ शामिल प्रसिद्ध बुद्धिमान बीरबल और संगीतकार तानसेन रीवा रियासत की ही देन हैँ। 

मैहर के मशहूर अलाउद्दीन खाँ का नाम कौन नही जानता है, ये भी हमारे रीवा के ही देन है।रीवा राज्य की प्रसिद्धियों को इतिहास में जगह नहीं दी गई, माना जाता है की अंग्रेजो के चाटुकारिता न करने का यह परिणाम है की रीवा राज्य के राजघरानो को रीवा तक ही सिमित रखा गया...आज भी इतिहास के पन्नो में मात्र रीवा का नाम शफेद शेर के कारण ही आता है, जबकि रीवा राज्य ने कई रत्न देश को दिए....शाहरुख खान और करीना कपूर अभिनीत फिल्म 'अशोक' मेँ शहरुख खान के हाँथ मेँ जो तलवार थी वो रीवा राजघराने की ही थी।

पर्यटकोँ के लिये रीवा मेँ विभिन्न आकर्षण केन्द्र है जैसे बघेला म्यूजियम, बाणसागर बाँध, व्येँकट भवन, उपरहटी का किला, रानी तालाब, होटल रीवाराजविलास, कोठी कम्पाउण्ड (महामृत्युंजय धाम) शिल्पी प्लाजा मार्केट, चिरहुला दरबार मंदिर, रामसागर मंदिर, विशाल भैँरो बाबा, भगवान बसावन मामा आदि बहुत हैँ।जलप्रपात बनाते है आकर्षण का केंद्ररीवा में अत्यंत सुन्दर प्राकृतिक सुंदरता से ओतप्रोत जलप्रपात हैँ जो अपनी सुंदरता से किसी के भी मन को मोह लेते हैँ, जैसे चचाई जलप्रपात, क्योटी जलप्रपात, बहूती जलप्रपात, पूर्वा जलप्रपात, बलौची जलप्रपात आदि!रीवा मेँ नदियोँ की बात करेँ तो रीवा का प्राण कहलाने वाली 'टमस नदी' जो किसानोँ के लिये माँ के समान है। 

रीवा रियासत मेँ अन्य कई नदियाँ भी शामिल हैँ जैसे अत्यंत सुंदर बीहर नदी, सोन नदी, सतना नदी। रीवा के आस पास के धार्मिक स्थलोँ मेँ रामवन, देवतालाब के शिव, बिरसिँहपुर के महादेव, धारकूँडी, अत्यन्त पवित्र मंदाकिनी गंगा के किनारे बसा चित्रकूट के कामतानाथ, हनुमान धारा, स्फटिक शिला, लक्ष्मण पहाडिया, सती अनुसूइया आश्रम,गुप्त गोदावरी आदि हैँ। 

मैहर की शारदा, इलाहाबाद का संगम आदि भी पास ही हैँ।भगत सिँह के समान ही अमरशहीद ठाकुर रणमत सिँह हुए है, जिनके नाम पर स्वशासी कालेज भी है। शिक्षा की बात करेँ तो सैनिक स्कूल, सरकारी इंजीनियरिँग कालेज, सरकारी मेडिकल कालेज रीवा की शोभा को बढाते हैँ। रीवा की गौरवतुल्य अवधेश प्रताप सिँह विश्वविद्यालय जो देश भर में उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों में गिनी जाती है..सुपारी की कारीगरीरीवा में राजशाही जमाने से ही सुपारी की कारीगरी की जाती है, यह दुनिया का एकमात्र स्थान हैजहां सुपारी के खिलौने, मूर्तियाँ आदि बनाकर विश्व भर में भेजा जाता है...गोविन्दगढ़ के आमआम फलों का राजा होता है और राजा रीवा का न हो तो मज़ा ही नहीं, ऐसे ही गोविन्दगढ़ के आम विश्व प्रसिद्ध है...गोविन्दगढ़,रीवा से विश्व स्तर पर आम फल का व्यापार किया जाता है।

बाघेल युगीन विन्ध्य में जंगे आजादी का इतिहास


                                   
 आज का रीवा-शहडोल संयुक्त संभाग का भूभाग (डिंडोरी तहसील को छोड कर) रहा है बघेल युगीन, विन्ध्य-क्षेत्र। इसकी सब से बड़ी रियासत रही है रीवा और संयुक्त रही हैं कोठी, सोहाबल, नागौद, मैहर, बरौंधा के साथ ही जागीरें जसो, रयगाँव व अन्य चार छोटी जागीरें। यही क्षेत्र तत्कालीन पोेलेटिकल एजेन्ट के आदेश (सन 1871) से बघेल-खण्ड कहा और लिखा जाने लगा।1 इस क्षेत्र में बघेल युग की शुरुआत है ईस्वी सन् 1562, जब बघेल राज्य गहोरा नरेश, रामचन्द्र जू देव (1555 गहोरा 1562 बाँधौगढ़ 1592 ई0) ने विन्ध्य क्षेत्र आकर बाँधौगढ़ में बाँधौराज्य की आधारशिला धरी।2 बघेल राज्य गहोरा यमुना नदी के दक्षिण, पश्चिम से पूर्व की ओर पट्टी की भाँति वर्तमान बाँदा क्षेत्र से मिरजापुर क्षेत्र तक स्थिति था।3 राजा रामचन्द्र के बाद, उनके वारिस राजा वीरभद्र देव (1592-93 ई0) की मृत्यु हुयी, तब उपजे राजनीतिक प्रपंच से तस्त्र इनके पुत्र, राजा विक्रमादित्य ़(1605-1624) बाँधौगढ छोड़ आ पहुँचे रीमाँ। बाँधौगढ़ सन 1597-1602 तक मुगल सल्तनत के अधीन रहा। राजा विक्रमादित्य ने रीमाँ में बिछिया और बीहर नदियो के संगम तट पर, शेरशाह सूरी के पुत्र, जलाल खाँे की, ईस्वी सन 1554 में तामीर कराई रिक्त गढ़ी से जोड़़ कर अपना आवास निर्मित करा कर किले का आकार दिया।4 रीमाँ नाम के बघेल राज्य की राजधानी स्थापित हुई रीमाँ। प्रायः तीन सदियो के अंतराल में चलता रीमाँ नाम, अंततः बदल कर हो गया रीवा।5 
पहली जंगे आजादी-राजा विक्रमादित्य के बाद उनकी तीन पीढि़यों के शासन काल का उतार-चढ़ाव देखती बीत गयी सदी सत्रहवीं। रीमाँ का किला खाली पड़ा था। राजमाता, राजा अवधूत सिंह (ई0 1700-1755) को लेकर रह रही थीं अपने मायके प्रतापगढ़ में और सौंप गई थीं राज-काज तरौंहा (चित्रकूट) के राजा हिरदयराम सुरकी को। ऐसे माहौल का लाभ उठाने रीमाँ आ धमका हिरदयसाह बुुँदेला। किला अपने कब्जे में कर 1000 बुँदेला सैनिकों के सुपुर्द कर, वापस हो गया अपने वतन को।6 मातृभूमि आजादी केे दीवाने, भोलगढ़ गाँव के निवासी कलचुरियों को, जब इस बात की जानकारी हुई, उनमत्त हो उठे मातृभूमि मुक्त कराने को। मात्र 46 वीरों की वाहिनी गठित हो पायी, जिसनेे संकल्प किया कि जीते जी बुँदेली सेना को किले में न रहने दंेगे। बोल दिया धाबा, रीमाँ किले की ओर। किले के भीतर घुस कर मचा दी मार काट। बुँदेले सैनिक भागे। खदेड़ लिया वाहिनी ने और जा घेरा वर्तमान घोघर स्कूल वाले मैदान में। रक्त के पनारे बहे। मरने कटने से बची बुँदेला सेना भाग गई; किन्तु शहीद कर गई मातृभूमि की स्वतंत्रता के दीवानो को। कतिपय प्रमुख येद्धाओं की जर्जर स्मारक छतरियाँ उक्त स्थल पर उन शहीदों की गौरव गाथा गाती आज भी खड़ी हैं। आवश्यकता है उनके मरम्मत की। अमर शहीदों के नाम हैं- साहेबराय करचुली, इन्ही के अनुज हिम्मतराय और चिंतामन राय। अभिमन्यु समान इनके 16 वर्षीय भतीजे मरदनसाह की स्मारक छतुरी किले के अंदर स्थिति ह,ै जहाँ वे शहीद हुए थे।  इस जंगे आजादी की विरुद कवि राम सिंह ने  बखानी है-
                      तलबार दबाय के दाँतन से नद पैर गये तजि सूध गली।
      सब गाजद गाजि सो टूट परे, बढि़ जीत बुँदेलन कै सैन दली।
      सहि अस्त्रन गातन घात अघात, लड़े रिपुवाहिनी भाग चली।
     तिनका तिनका तन टूटि गयो, बिचले नहिं साहबराय अली।।
 किला मुक्त हो गया, मातृभूमि पराधीन होते-होते बच गई। बघेल युगीन विन्ध्य का यह पहला जंगे आजादी था, जिसमें तेंदुन के गयंदसाह और जीतराय बघेल ने भी वीर गति पायी थी। यह जंग हुआ था सन 1703 में।7
दूसरी जंगे आजादी -उपरोक्त घटना के बाद 93 बसंत बीेते, तभी विन्ध्यधरा को आधीन करने आ धमका, बाँदा के नवाब का सिपहसालार यशवंतराव निबलकर, वह नायक नाम से विख्यात था। दस हजार सैनिक थे नायक के साथ। राज्य संरक्षक राजा अजीत सिंह (1755-1809 ईस्वी ) के हाँथ-पैर सूज गए, घिघ्घी बँध गयी। सुरक्षा हेतु कोई संगठित सेना तो थी नहीं, कि युद्ध करते। वे चैथ-सरदेशमुखी देते रहने का निर्णय कर चुके थे। मातृभूमि के आजादी के दीवानों को भला यह बात क्यों मंजूर होती? दौड़-धूप कर अपने ही समान लोगों से संपर्क साध कर आजादी के 200 दीवानो ने नायक की विशाल सेना को धूल चटाते; खदेड़ देने का संकल्प किया। नायक का शिविर, नगर के पश्चिम बीहर नदी पार चोरहटा के बगार में था। दीवाने दो दलो में बँट गए। एक की कमान सम्हारी गजरूप सिंह बघेल ने, दूसरे की कलंदर सिंह करचुली रायपुर ने। बैरी सेना तैयार न हो पायी थी; तभी दोनो दलों ने दो ओर से झपट्टा मारा। नायक, कलन्दर सिंह वाले दल से घिर कर मारा गया। उसकी सेना भाग गई। दुबारा भी विन्ध्य-धरा पराधीन होने से बचा ली गयी। जंगे आजादी के दीवाने बड़ी संख्या में शहीद और घायल हुए। सर्व अमर शहीद-शिवदेवसिंह बघेल तेंदुन, गोपाल सिंह बघेल तेंदुन, अनूप सिंह बघेल रामपुर, श्यामशाह करचुुली पटना, पहार सिंह परिहार सिजहटा, धउआ बरगाही, अभिमान सिंह करचुली रायपुर, रामबक्स बारी और पंचम सिंह परमार कोकाघाट आदि की स्मारक छतरियाँ चोरहटा में यथा स्थान स्थापित हैं। इस जंग को संज्ञा मिली ‘नैकहाई की लड़ाई,‘ जिसमें शामिल एक एक दीवानेे का कृतित्व का ओज पूर्ण वर्णन दुर्गादास महापात्र कृति वीर रस प्रधान ‘ अजीत फतह-नायक रायसा’ मंे हुआ है। इस जंग के कतिपय अन्य महत्वपूर्ण योद्धाओं के नाम हैं-कमोद सिंह बघेल, शिवराज सिंह बघेल, संग्राम सिंह करचुुली, भगवान सिंह करचुली, बग्गा खाँ साहनी, निहाल खाँ साहनी, समईलाल ब्राह्मण, सरूराम ब्राह्मण, पहार सिंह परिहार, मरजाद सिंह परिहार और सिउराज सिंह रैकवार आदि।8  ये दोनो जंग अपने राज्य के लिए लड़े गयंे। उन दिनो अपने राज्य को ही देश माना, जाना और कहा जाता रहा है।
तीसरी जंगे आजादी-ईस्वी की अठारहवीं सदी बीत गयी। भारत देश को ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने  शिकंजे में कसती जा रही थी, कि उन्नीसवीं सदी आ धमकी। कसमसा रहा था देश, जिसका एक अंश था विन्ध्य क्षेत्र। तत्कालीन शासक ने अपने वर्चस्व के लिए, सन 1812 और 1813 में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि कर ली। यह संधि 11 विन्दुओं पर आधारित ‘आनरेबल ईस्ट इण्डिया कम्पनी ऐण्ड दि राजा जयसिंह देव राजा आफ रीवा एण्ड मुकुन्दपूर’ से नामांकित हुई।9 संधि में रीमाँ का नाम रीवा है। कहना न होगा  कालांतर में रीमाँ मिट गया; रीवा स्थापित हो गया।10 किन्तु उन्नीसवीं सदी में कम्पनी सरकार का प्रचलित किया हुआ बघेल खण्ड शब्द एक सदी बीतते बेमानी हो गया। 
  संधि हो जाने पर रीवा राज्य, कम्पनी सरकार के राजनैतिक प्रपंच जाल में फँसता चला गया। ज्यों ज्यों काल चक्र आगे बढ़ता गया, कम्पनी सरकार का शिकंजा कसता, असहनीय होता गया। परिस्थितियाँ बद से बदतर होती गई। आधी सदी बीत चुकी थी, छटपटाते स्वतंत्रता के आराधकों को विरोध करने हेतु किसी बहाने की प्रतीक्षा थी। अचानक रीवा में एक घटना घटी। वहाँ पदस्थ पोलेटिकल एजेन्ट, ओसबार्न (असबरन) के आदेश से एक तैलंग ब्राह्मण को जासूसी का अभियोग लगा कर जेल में बंद कर दिया गया। रीवा के आजादी के दीवानों को शासन के खिलाफ विरोध करने का एक अच्छा धार्मिक बहाना मिल गया। वे एक जुट होकर ‘जय ब्रह्मण देव’ के रक्षा का नारा लगाते सड़क पर निकले, भारी जन समूह जुटता गया और जाकर ‘पोलेटिकल एजेन्ट’ के बँगले को घेर लिया। ‘पोलेटिकल एजेन्ट’ भाग गया। बाद में उसने ठाकुर रणमत सिंह को इस काण्ड का अगुआ निरूपित करते, उनके कई अन्य साथियों को भी राज्य छोड़ कर बाहर चले जाने का आदेश, राज्य सरकार से प्रसारित करा दिया। रणमत सिंह ने रीवा राज्य के सरहद से बाहर चित्रकूट के जंगल में रहते; आजादी के दीवानों की फौज का गठन किया। उनके खास साथी थे  श्यामशाह, धीर सिंह, पंजाब सिंह, पहलवान सिंह, बृन्दावन कहार, तालिब बेग, शहमत खाँ और लोचन सिंह चँदेल।
   रणमत सिंह का पहला धावा कम्पनी सरकार के नागौद की ’रेजिमेन्ट’ पर हुआ। नागौद उन दिनो हुआ करता था ‘बुन्देल खण्ड पोलेटिकल एजेन्सी’ का मुख्यालय। रणमत सिंह की वाहिनी ने उसे लूट लिया। ‘अस्टिेन्ट पोलेटिकल एजेन्ट’ मेजर एलिस भागा और जा पहुँचा अजयगढ़। उसका पीछा करते रणमत सिंह अजयगढ़ की ओर बढ़ रहे थे। बीच राह भेलसाँय में कम्पनी सरकार और अजयगढ़ राज्य की संयुक्त सेना से मुठभेड़ हो गयी। सेना आधुनिक आयुध और तोप युक्त थी। सरगना केसरी सिंह, रणमत सिंह द्वारा मारा गया, किन्तु वे भी बुरी तरह घायल हो गए। वे भूमिगत हो गए। कम्पनी सरकार ने उनके लिए रुपये 2000 का इनाम घोषित किया। घायल रणमत सिंह नागौद रहते अपनी सेहत सुधार रहे थे। चलने-फिरने लायक हुए तो पुनः विश्वस्त साथियों को जुटा कर चल दिए, उस काल के जंगे आजादी के महानायक तात्या टोपे के साथ हो जाने को। जिनसे खत-किताबत हो चुकी थी।11 तात्याटोपे बुन्देल खण्ड की रियासतंेे हथिया रहे थे। रियासत चरखारी को हथिया लिया था। रणमत सिंह आगे बढ,ेे उनके रास्ते मे ही थी; कम्पनी सरकार की नौगाँव छावनी, लगे हाथ उसे लूट लिया।12 उसी समय जंगे आजादी के नायक कुँवर सिंह भी बिहार से कूच कर बढ़ रहे थे तात्याटोपे से मिल जाने को। कम्पनी सरकार की फौज उन्हे आगे न बढ़ने देने के लिए जगह जगह तैनात थी जो बाधक बन गयी रणमत सिंह के राह की भी। राह बदल रणमत सिंह नेे पग बढ़ाये अपने पुराने ठिकाने चित्रकूट की ओर। जंगल में टकरा गयी कम्पनी सरकार की एक फौजी टुकड़ी। उसे निपटा कर रणमत सिंह ने पुनः राह बदली, चल दिए जंगे आजादी के सिपाही; अपने मित्र रणजीतराय दीक्षित की डभौरा गढ़ी की ओर। उनके पीछे ही तो थी बाँदा से चली आ रही कम्पनी सरकार की फौज। बरसने लगे गोले गढ़ी पर। इतने कि गढ़ी घ्वस्त हो गई। किन्तु न मिले जिन्दा या मुर्दा, रंजीतराय और रणमत सिंह। फौज पहुँचने के पहले ही दोनो गायब हो गए थे; न जाने कहाँ। बाद में कम्पनी सरकार को सुराग मिला कि रणमत सिंह क्योटी की गढ़ी में छिपे हैं। राजकीय फौज को हुक्म हुआ ‘गढ़ी पर हमला बोल, रणमत सिंह को जिन्दा या मुर्दा पेश करो, मदद के लिए कम्पनी की फौजी टुकड़ी भेजी जा रही है।’
  जंगे आजादी का दल क्योटी की गढ़ी में था; जब दोनो फौजों ने गढ़ी पर धावा बोला। बच निकलने के फेर में दल बाहर आया, झपट पड़ा ‘कम्पनी कमाण्डर’ रणमत सिंह पर। रणमत की तलवार चली और हमलावर का कटा सर दूर जा गिरा। रणमत सिंह जंगल में घुसे और गायब हो गए। साथी भी तितर बितर हो गए।
   इसके पूर्व की घटना है -रणमत सिंह ने रीवा के दक्षिणी इलाके सोहागपुर के ठाकुर गरुण सिंह को उकसाया, जिन्होने हथियार उठा कर बगावत कर दी। लिहाजा सिपाही सिंह धौवा के कमाण्ड में रीवा की फौज ने जाकर गढ़ी पर गोले बर्षाये। गरुण सिंह ने हथियार डाल दिए। मैहर का राजा नाबालिग था। उसके चाचा बागी हो गए। अपने रिश्तेदार जूरा, कन्हवाह और कंचनपुर के ठिकाने दारों के साथ हथियार उठा लिए। इनको सबक सिखाने के लिए रीवा की फौज ने धावा बोला। लूट-पाट मचाते, गढि़यों को कब्जिआते भारी आतंक मचाया लिहाजा बागी तितर-बितर हो गए।13 नागौद की छावनी बघेलखण्ड और बुँदेलखण्ड के बीच में स्थिति थी। वहाँ के देशी सिपाही बागी हो गए। रोज कोई अफवाह फैलाई जाय और रोज किसी न किसी वारदात को अंजाम दिया जाय। कभी जेल के कैदी रिहा किये जा रहे हैं, वहाँ के चैकीदार को मार कर हथियार लूट लिये गये हैं, कभी अँगरेज हाकिमों को घेरा जा रहा है। अंजाम, अंगरक्षक मार दिए जा रहे हैं। कभी अँगरेज हाकिमों के बँगलो पर धाबा बोल कर लूटा जा रहा है। कुछ न पाने पर आग लगाई जा रही है। ’पोलेटिकल रेसीडंेस’ भी आग के हवाले कर दिया गया था। अँगरेज हाकिमों ने असुरक्षा को देखते हुए अपने परिवार जनो को अन्यत्र भेज दिया था। एजेन्सी का एक हाकिम कोल्स, नागौद राजा के किले में शरण लिए रहा। एक कम्पनी को कालिंजर जाने का हुक्म जारी हुआ। कम्पनी ने ‘तुम्हारे हुक्म की ऐसी-तैसी’ कहते जाने से इन्कार कर दिया। कुएँ में डलबा दिए गए थे हथियार, इस डर से कि कहीं बागी सिपाही इन्हे छिना न लें।  भयंकर भयभीत थे वहाँ पदस्थ कम्पनी सरकार के अँग्रेज हाकिम और नागौदा के राजा भी। जबकि बागी सिपाही शहर की ओर रुख नहीं कर रहे थे। नागौद के राजा ने रीवा राजा को पत्र भेज कर फौज की एक टुकड़ी की मांग की थी। घिघ्घी बँधी हुई थी नागौद पदस्थ ’असिसटैन्ट पोलेटिकल एजेन्ट’ मेजर एलियस की। बार बार रीवा के ’पोलेटिकल एजेन्ट’ को मदद के जिए पत्र लिखा। एक बार तो दो सिपाहियों ने उस पर झपट्टा मारा। उनमें से एक को तो तमंचे से मार गिराया, दूूसरा भाग गया। बगाबत भड़काने के शक पर दो भारतीय सूबेदार, दो सारजेन्टो और लैंसनायक शोख पूरन को भी शूट कर दिया गया था। अंततः मेजर एलियस छिपते छिपाते नागौद से भाग गया था।
नागौद छावनी पर धाबा बोलने के लिए रणमत सिंह को आमंत्रित किया था जसो के जागीरदार ईश्वरी सिंह, कोनी के होरिल सिंह तथा अमकुई, कोटा और बमुरहिया ठकुरइस के लोगों ने। उनके कंधे से कंधा भिड़ा कर भेलसाँव के जंग में शहीद हुए थे-करजाद अली, मुकुन्द सिंह, छत्तर सिंह, रणछोर सिंह एवं गंदर्भ सिंह। इस जंगे आजादी के मुखिया सिपहसालार रहे हैं अमर शहीद रणमत सिंह मददगार सिपहसालार अमर शहीद श्यामशाह। जिनकी याद हम करते हैं रीवा नगर में खड़े ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय तथा श्यामशाह चिकित्सा महाविद्यालयों को देख कर। कम्पनी सरकार की काँटा से काँटा निकालने की शातिर चाल ने जंग समन का खिलौना बनाया रीवा राजा रघुराज सिंह को। इनाम में वापस किया उनके पुरखों द्वारा गवाँया भूभाग जो है वर्तमान में म0प्र0 का नवनिर्मित राजस्व संभाग शहडोल, बना है राजनीत का अखाड़ा।
 मौलाना रहमान अली की ’तवारीख-ए-बघेलखण्ड (हिन्दी तर्जुमा) के पन्नो पर दर्ज है इबारत-‘1-धीर सिंह साकिन कछियाटोला बड़गड़ में फौज से सरकार की शिकस्त खाई और मफकूहुल खबर होकर मर गया। 2-पंजाब सिंह साकिन मझियार जिला अँग्रेजी में गिरफ्तार होकर जिला बाँदा को भेजा गया मुकाम करबी में बाद तहकीकात कामिल रिहा होकर अपने घर आया। 3-रनमत सिंह साकिन रीवाँ बमोकाम रीवाँ हबिदयाल मीर मुन्शी एजेन्टी के हुजूर में केप्टन असबरन साहब बहादुर के हाजिर हुवा साहब मौसूफ ने उसकी पालकी सवार करके बाहिरासत हो सौ नफर सिपाहियान बहमराही हारौल इशरजीत सिंह जिला बाँदा को रवाना किया तहकीकात से कत्ल करना किसी योरोपियन का उसके जिम्मे साबित हुवा इसलिए अगस्त सन् 1860 ई0 में उसने बमुकाम बाँदा फाँसी पाई। 4-स्यामसाह साकिन खमरिया को बलबीर सिंह साकिन मनकीसर इलाका रामनगर ने कत्ल कर के लाश उसकी केप्टन असबरन साहब बहादुर के हुजूर में भेजी।
 इसी से संबंधित कर्नल जनार्दन सिंह लिखित ‘रीवा राज्य का सैनिक इतिहास में इबारत दर्ज है- रणमत सिंह को पकड़ने के लिए बृटिश सरकार का एक रिसाला बाँदा से कयोटी आया। कर्नल कमांडेट...अंग्रेज आफिसर था जो रणमत सिंह के हाथ से क्योटी मंे मारा गया और रणमत सिंह जंगल लेकर गायब हो गये। तब रिसाला हताश होकर वापस गया। कुछ दिनो पश्चात रणमत सिंह राजकीय सेना द्वारा गिरफ्तार होकर बृटिश अफीसरों के सिपुर्द बाँदा में किये गये। पता नहीं कि फिर उन्हे क्या हुुआ। रणमत सिंह के चाचा श्यामशाह साकिन खम्हरिया अपने भतीजे के साथ बागी थे। इनका राज्य के हुक्म से देवी सिंह बघेल साकिन बुड़बा ने मारा था और इसके उपलक्ष में हाथी रखने की शर्त पर 600/(रुपए) सालाना की नौकरी इनको दी गई थी।‘
इतिहास गवाह है कि जब जब भारत देश ने विदेशियों के खिलाफ जंग लड़ी, तब तब मात खाई अपने यहाँ के गद्दारो के गद्दारी से। सन 1857 का जंगे आजादी को फतह किया कम्पनी सरकार ने और अपने सारे सत्व तथा अधिकार सौंप दिए ब्रिटेन की साम्राज्ञी विक्टोरिया को। तब भारत देश की सरकार हो गई ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’। दिनांक एक नवंबर को साम्राज्ञी विक्टोरिया ने घोषणा की, जिसका हिन्दी तर्जुमा है- ‘हम उन सब संधियों तथा इकरारों को स्वीकार करते हैं जो ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ द्वारा अथवा उसकी ओर से लिए गये हैं, हम उनपर पूर्ण रूप से पावंद रहेंगे। हम अपने वर्तमान क्षत्रे़ में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं चाहते।’
चौथी जंगे आजादी - बीत रहे थे दिन, बदल रहा था जमाना। ‘ब्रिटिश इण्डिया’ के 40 प्रतिशत भूभाग पर राजे और जागीरदार काबिज थे। सेन्ट्रल इण्डिया प्राविन्स के बधेल खण्ड डिवीजन के 13000 वर्ग मील के बड़े बघेल राज्य रीवा का 20 वषर््ीय सन 1875-1895, तथा दुबारा 4 वर्षीय सन 1918-1922 का, ’ब्रिटिश गवर्नमेंट’ के ‘पोलेटिकल एजेन्सी’ का शासन काल भी कभी का चुक चुका था।  राज्य के दफ्तरों में बैठी फारसी भाषा जिसने रीमाँ को रीवाँ बना डाला था, हिन्दी भाषा ने धकिया कर सन 1895 में आसन ग्र्रहण कर लिया था। भारतीय काँँग्रेस पार्टी की रास महात्मा गाँधी के हाँथ आ गयी थी। जिनकेे अनुसंधानित मनोवैज्ञानिक आयुध, ‘सत्याग्रह’ का सन 1920 में, ‘ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट’ के खिलाफ एक बार प्रयोग भी किया जा चुका था। कलकत्ता केें सन 1928 वाले अपने अधिवेशन में भारतीय काँँग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया-‘भारतीय रियासतों के राजा अपनी रियासतों में अति शीघ्र उत्तरदायी शासन की घोषणा करें या ऐसे नियम बनायें जिनमें नागरिकों के प्रारंभिक तथा मुख्य अधिकार सुरक्षित रहें। क्राग्रेस रियासती जनता को विश्वास दिलाती है कि उत्तरदायी शासन स्थापित करने में उनके उचित और शांति पूर्ण प्रयासों में वह उनकी सहायता करेगी।’14
30 मई 1931 को बघेलखण्ड तथा बुँदेलखण्ड के 34 रियासतों के काँगे्रसी प्रतिनिधियों ने कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के नेत्ृत्व में इस संबध में सत्याग्रह आँन्दोलन करने का प्रस्ताव पारित किया। सत्याग्रह प्रारंभ हुये, उसे विफल करने के लिए राजकीय प्रशासन ने सत्याग्रहियों की गिरफ्तारियाँ की। रीवा में 11 जुलाई 1931 को कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, पण्डित शंभूनाथ शुक्ल, लाल यादवेन्द्र सिंह, लाल वंशपती सिंह और पण्डित राजभान सिंह तिवारी को गिरफ्तार कर के घनघोर वनप्राँतर बीच जर्जर बान्धवगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया। इनके अतिरिैक्त पचासों अन्य सत्याग्रही भी गिरफ्तार हुए थे। नागौद के सत्याग्रहियों को भी बंदी बनाया गया। रीवा और नागौद के सत्याग्रहियों की संख्या इतनी हो गयी थी कि माधोगढ़, अमरपाटन और रामनगर की गढि़यों में भी रखने की व्यवस्था करनी पड़ी थी। बँाघवगढ़ के बारे में कप्तान साहब ने इस प्रकार लिखा है। ‘बरामदे में जून की बरसात में उस तीन हजार फीट ऊँचे पहाड़ पर जहाँ लगातार पन्द्रह पन्द्रह दिन बारिस होती रहती थी, सूर्य के दर्शन नहीं होते थे, वहाँ हम लोगों को गीले कपड़ों में रहना पड़ता था। एक सौ पाँच डिग्री या इससे भी अधिक बुखार रहने पर न कोई डाक्टर आता था और न कोई दवा दी जाती थी। उस जेल में यादवेन्द्र सिंह की हालत मरणासन्न हो गयी थी और मुझे तीस उपवास करना पड़ा था। बाँधवगढ़ में इस भयावह स्थिति में अनेक सत्याग्रहियों की मुत्यु हो गयी थी, इसमें शहीद केदारनाथ, शहीद हरिनारायण सिंह, शहीद छबिनाथ सिंह, शहीद लाल पार्षद सिंह, शहीद महादेव प्रसाद, वामनराव बक्शी के नाम उल्लेखनीय हैं।’ मजे की बात यह कि इन सत्याग्रहियों पर मुकदमा न चलाते दो वर्षों तक रिहा नही किया गया। रिहा किया गया सन 1934 में और जंगे आजादी सत्याग्रह की इति हुयी।15
 पाँचवीं जंगे आजादी -इस संघर्ष के दस वर्षो के अंतराल में; सन 1942 में; भारत ने सम्पूर्ण स्वराज्य के सिधान्त का आधार लेकर स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई लडी़। जिसे स्वतंत्रता संग्राम, भारत छोड़ो आँदोलन, करो या मरो आंदोलन, असहयोग आंदोलन तथा अगस्त क्राँति से अभिहित किया जाता है। जिसका शंखनाद किया था महात्मा गाँधी ने तत्कालीन बंबई के गवालियर टैंक मैदान सभा के भारी भरी भीड़ में, ईस्वी सन 1942 के, दिनांक 8 अगस्त को। सुवह होने के पूर्व ही चार बजे गिरफ्तार कर लिया गया था उन्हे और सारे देश के वरिष्ठ नेता दिन में दिनांक 9 अगस्त को। महात्मा गाँधी ने सभा को संबोधित करते ललकारा था ‘अँगरेजो भारत छोड़ो’ और देशवसियो को ‘करो या मरो’। गिरफ्तारी का सिलसिला रीवा में भी उसी दिन से जारी हुआ। 9 अगस्त को लाल मर्दन सिंह और श्री राजमणि प्रसाद गिरफ्तार कर लिए गए। 10 अगस्त को ‘रीवा दिवस’ मनाया गया, जानकी पार्क में सभा सम्पन्न हुयी। मनिकवार के पं0 राजभान सिंह तिवारी और सतना के पं0 अवधबिहारी लाल बंदी बना लिए गए। तीसरे दिन 12 अगस्त को  रामपुर बघेलान के लाल देवेन्द्र सिंह, इनके अनुज लाल गोविन्द नारायण सिंह, डिहिया के महावीरप्रसाद भट्ट, काँकर के लाल कमलेश्वर सिंह, सुदर्शन प्रसाद, रीवा की श्रीमती विष्णुकान्ता देवी उर्फ ऊषा देवी, श्रीमती राजकुमारी देवी, रायपुर सोनौरी के पं0 भैरवदीन मिश्र ‘मार्तण्ड’ और  बिड़ौरी (शहडोल) के लाल कृष्णपाल सिंह आदि को रीवा में गिरफ्तार किया गया।16 यहाँ प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का नमोल्लेख के लिए बाधक है स्थानाभाव। जिज्ञासुओं की जिज्ञासा समन हो सकती है शासन द्वारा प्रकाशित कराई गयी नामावलि पुस्तक से। 
‘भारत छोड़ो आँदोलन’ के विरुद्ध, 12 अगस्त को रीवा में तो मात्र गिरफ्तारियाँ हो रही थीं, वहीं इलाहाबाद में आँदोलन कारियों पर, गोलियाँ बरसायी जा रही थी। फलस्वरूप रीवा कृपालपुर के युनिवर्सिटी इलाहाबाद में शिक्षारत छात्र, लाल पद्मधर सिंह, छाती पर लगी पुलिस की गोली से शहीद हो गए। अमर शहीद का पार्थिव शरीर युनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के उग्र हो जाने के कारण उन्हे सौंप दिया गया। इलाहाबाद में शिक्षारत रीवा मझियार के लाल केशव सिंह ने अमर शहीद लाल पद्मधर सिंह के पार्थिव शरीर का गंगा तट पर अग्नि संस्कार किया। इतने बड़े हादसे की जानकारी शहीद के परिजनो और रीवा निवाससियों को 14 अगस्त के दिन जानने को मिली। रीवा में शोक सभायें हुईं और आँदोलन उग्र हो गया। आँदोलन की बागडोर सम्हाली दरबार इन्टरमीडिएट कालेज तथा मार्तण्ड एँग्लोवर्नाकूलर मिडिल स्कूल रीवा के किशोर वय छात्रों ने। इनका मार्गदर्शन कर रहे थे भूमिगत होकर, रीवा के कतिपय राष्ट्रभक्त जन। वरिष्ट नेताओं लाल यादवेन्द्र सिंह तथा पण्डित शम्भूनाथ शुक्ल के साथ सैकड़ो अन्य लोग भी महीनो पहले से सेन्ट्रल जेल रीवा तथा अन्य कसबों के हवालातों में बंद थे। जिन्हे उसी ‘डिफेन्स रूल आफ इण्डिया’ के तहत गिरफ्तार किया गया था, जिस ‘ऐक्ट’ के तहत अगस्त क्राँति के क्राँतिकारियों को किया जा रहा था। अघिकांश काँग्रेसी नेता आँदोलन प्रारंभ होने के पूर्व ही महाराजा गुलाब सिंह की गिरफ्तारी के विरोध में जेल चले गये थे।17 राजा गुलाब सिंह को एक कत्ल में सहयोगी होने के अपराध में मुअत्तिल करके राज्य सेे बाहर रहने का आदेश हुआ था और ‘ब्रिटिश गवर्नमेंन्ट आफ इण्डिया’ के अधिकारी मेजर उल्ड्रिज को रीवा स्टेट का ‘एडमिनिस्ट्रेटर’ नियुक्त कर दिया गया था। राजा को वापस लाने के लिए वह आँदोलन किया जा रहा था, जिसकी शुरुआत हुयी थी 18 फरवरी 1942 को और गिरफ्तारियों का सिलसिला चला था 16 मई 1942 तक।
अगस्त क्राँति के भूमिगत आँन्दोलनकारियों का प्रमुख अड्डा था कमसरियत (बासिपपुरबा) मोहल्ला में तत्कालीन मार्तण्ड ए0 वी0 एम0 स्कूल के पीछे स्थिति ‘मित्र-मंदिर’ कोठी। जिसमें रह रहा था; कोठी निर्माता ठाकुर जगतप्रताप सिंह वकील तथा कुँवर सूर्यबली सिंह, हेडमास्टर मार्तण्ड ए0 वी0 एम0 स्कूल का संयुक्त परिवार। यहाँ से अगले दिन के अँदोलन का कार्यक्रम निर्धारित हो कर चोरी-छिपे भेज दिया जाता आँदोलनकारी छात्र नेता मोहन सिंह कर्चुली (रायपुर) और रविशंकर नागर (उपरहटी रीवा) के पास। साथ ही वे जोशीली बुलेटिनो की पाण्डुलिपि भी जिनका निर्माण हेडमास्टर साहब करते थे। शहर से हेडमास्टर साहब के विश्वस्त छात्र, श्री शिवकुमार शर्मा, श्री वीरेन्द्र सिंह और श्री पुरुषोत्तम मिश्र रात में पढ़ने के बहाने आते, साहित्यकार हेडमास्टर साहब बुलेटिन का मजमून बोल कर लिखवा देते। वह पहँुच जातीे छात्र नेताओं के पास। वहाँ ‘साइकलोस्टाइल’ होकर प्रतियाँ, शहर के उपयुक्त स्थान पर चिपका दी जातीं, कुछ आम जनों को बाँट दी जातीं। बुलेटिने होती थीं जोशीली, शीर्षक होते थे ओज पूर्ण जैसे ‘रीवा के बहादुरो उठो।’ बुलेटिनेंा से परेशान था प्रशासन। अंततः ‘क्रिमिनल इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेन्ट’ ने स्रोत खोज ही लिया। हेडमास्टर कुँअर सूर्यबली सिंह इन्ही के अनुज कुँवर अविनाश चन्द्र सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। ठा0 जगतप्रताप सिंह के पुत्र ठाकुर गुरुरत्न सिंह एवं हेडमास्टर साहब के पुत्र कुँवर शिव प्रसन्न सिंह (दोनो नाबालिग नौवीं के छात्र) को सतना में आँदोलन रत दफा 341, 452 और 506 के तहत गिरफ्तार किया गया था।
 हेडमास्टर साहब और उनके अनुज को 19 सितंबर 1942 को गिरफ्तार किया गया। इनकी  गिरफ्तारी गरिमा मय रही। दोनो भाई पारिवारिक ओपेन हुड कार में मालायें पहने  खड़े हैं। छात्रों का जुलूस आगे आगे नारे औ जयकारे लगाता बढ़ रहा है। शहर में 144 धारा घोषित है। जुलूस प्रकाश चैराहे पर पहुँचा। मजिस्ट्रेट जगन्नाथ प्रसाद मिश्र और पुलिस सुपरिनटेन्डेन्ट दलवीर सिंह ने जुलूस को रोका। जुलूस नहीें रुका। लाठी-चार्ज का आदेश हुआ। जुलूस पर लाठियाँ बरसीें, वह  तितर-बितर हो गया। कार की रफ्तार तेज हुई वह बढ़ कर जा पहुँची फलकनुमा कोठी, जिसे जेल के अनुरूप कर दिया गया था। इस आँदोलन के भूमिगत संचालक  मित्र-मंदिर के ठाकुर जगत प्रताप सिंह को राज्य निकाला की सजा सुनायी गयी, मित्र-मंदिर रिक्त हो गया, परिवारजन भेज दिए गये मित्र परिवारो के यहाँ।18
  ‘प्रकाश साप्ताहिक’ के संपादक ठाकुर अर्जुन सिंह की गिरफ्तारी हुई थी 19 सितंबर 1942 को। राज्य निष्कासन का आदेश पं0 विश्वेश्वर प्रसाद को भी दिया गया था। दिनांक 5, 7 और 13 अक्टूबर 1942 को भी लोग भारी संख्या में गिरफ्तार किये गये थे। अनिश्चित काल के लिये सभी शैक्षणिक संस्थान बंद करा कर दरबार कालेज और मार्तण्ड स्कूल के बोर्डिंग हाउस खाली करा लिए गये थेे। अक्टूवर माह तक गिरफ्तारियो का सिलसिला चलता रहा। राजा गुलाब सिंह वापस आये पुनः शासन सम्हाला। सन 1944 की जनवरी से बंदियो का मुक्त होना प्रारंभ हुआ। इस जंगे आजादी का ही परिणाम है 15 अगस्त सन् 1947 को देश की आजादी।
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संदर्भ दर्शिका
1-बघेली भाषा का इतिहास,  लेखक डा0 भगवतीप्रसाद शुक्ल।
2-अजीत फते नायक रायसा-बघेलखण्ड का आत्हा, पृष्ठ 5 संपादक प्रो0 अख्तर हुसैन निजामी।        
3-अजीत फते नायक रायसा-बघेलखण्ड का आत्हा, संपादक प्रो0 अख्तर हुसैन निजामी।        
4-बघेलखण्ड की स्थापत्य कला, पृष्ठ 14, लेखक असद खान।
5-रीवा तब अउर अब, लेखक रविरंजन सिंह।
6-रीवा राज्य का इतिहास, पृष्ठ 65, लेखक गुरु रामपियारे अग्निहोत्री।
7-कलचुरि नरेश और उनके वंशज, पृष्ठ 16, लेखक डा0 रामकुमार सिंह।
8-अजीत फते नायक रायसा, कवि दुर्गादास महापात्र।
9-रीवा स्टेट डायरेक्टरी ऐण्ड हूज ऐण्ड हू (इंगलिश) लेखक के0 एम0 सक्सेना।
10-रीवा नामकरण, लेखक प्रो0 अख्तर हुसैन निजामी (पत्रिका रीवा रिडिस्कवर्ड 2003।
11-ठाकुर रणमत सिंह, लेखक डा0 के0 एन0 वर्मा, ठा0 र0 सिं0 म0 रीवा स्मारिका 1983।
12-विन्घ्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का इतिहास, लेखक डा0 अनुपम सिंह।
13- रीवा तब अउर अब, पृष्ठ 128, लेखक रविरंजन सिंह।
14-भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का इतिहास लेखक सीतारमैया।
15-स्व0 कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, विन्घ्यिका 2008 पृष्ठ 77, लेखक अखिलेश शुक्ल।
16-भारत छोड़ो आँदोलन मेे बघेलखण्ड की भूमिका, देशबंधु 2 अगस्त 1992 एवं भारत छोड़ो आँदोलन में बघेलखण्ड, देशबंधु, लेखक वही।
17-सतना नगर, पृष्ठ 109 लेखक शिवानंद।
18- सन 1942 और रीवा एक स्मृति फलक, दैनिक देशबंधु 9 अगस्त 1992 लेखक जगदीशचन्द्र जोशी।
19-आँखिन देखा भोगा सन 1942 केर आँदोलन, लेखक रविरंजन सिंह
20-  स्वतंत्रता संग्राम और मित्र-मंदिर, लेखक वही
21-सुधीर रंजन द्वारा लिया गया स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कर्नल गुरु रत्न सिंह का साक्षात्कार।
22-देशबंधु-अगस्त क्राँति के निशां लेख 1 से 4, लेखक राजेन्द्र गहरवार।